Thursday, September 18, 2008

सत्यानुसरण

जगत में मनुष्य जो कुछ दुःख पाता है उनमें अधिकांश ही कामिनी-कांचन की आसक्ति से आते हैं, इन दोनों से जितनी दूर हटकर रहा जाय उतना ही मंगल।
भगवान श्रीश्रीरामकृष्णदेव ने सभी को विशेष कर कहा है, कामिनी-कांचन से दूर-दूर-बहुत दूर रहो।
कामिनी से काम हटा देने से ही ये माँ हो पड़ती हैं। विष अमृत हो जाता है। और माँ, माँ ही है, कामिनी नहीं।
माँ शब्द के अंत में 'गी' जोड़कर सोचने से ही सर्वनाश। सावधान ! माँ को मागी सोच न मरो।
प्रत्येक की माँ ही है जगज्जननी ! प्रत्येक नारी ही है अपनी माँ का विभिन्न रूप, इस प्रकार सोचना चाहिए। मातृभाव हृदय में प्रतिष्ठित हुए बिना स्त्रियों को स्पर्श नहीं करना चाहिए--जितनी दूर रहा जाये उतना ही अच्छा; यहाँ तक की मुखदर्शन तक नहीं करना और भी अच्छा है।
मेरे काम-क्रोधादि नहीं गये, नहीं गये-- कहकर चिल्लाने से वे कभी नहीं जाते। ऐसा कर्म, ऐसी चिंता का अभ्यास कर लेना चाहिए जिसमें काम-क्रोधादि की गंध नहीं रहे- मन जिससे उन सबको भूल जाये।
मन में काम-क्रोधादि का भाव नहीं आने से वे कैसे प्रकाश पायेंगे ? उपाय है-- उच्चतर उदार भाव में निमज्जित रहना।
सृष्टितत्व, गणितविद्या, रसायनशास्त्र इत्यादि की आलोचना से काम-रिपु का दमन होता है।
कामिनी-कांचन सम्बन्धी जिस किसी प्रकार की आलोचना ही उनमें आसक्ति ला दे सकती है। उन सभी आलोचनाओं से जितनी दूर रहा जाये उतना ही अच्छा।

2 comments:

Pushpa Bajaj said...

बहुत सुन्दर प्रयाश ..............आप लिखते रहें.......

Unknown said...

पोस्ट करने हेतु बधाई!