तुम मनुष्य के
ऐसा नित्य प्रयोजनीय
बनकर खड़े होओ --
जिसमें तुम्हारी सेवा से
तुम्हारा पारिपार्श्विक
यथासाध्य प्रयोजन की पूर्ति करके
जीवन, यश और वृद्धि को
आलिंगन कर सके; --
और, ऐसा करके ही तुम
हर के हृदय में व्याप्त हो जाओ
और ये सब तुम्हारे
चरित्र में परिणत हो, --
देखोगे
यश तुम्हें क्रमागत
जयगान से यशस्वी बना देगा
संदेह नहीं। 3
Thursday, September 18, 2008
सत्यानुसरण
जगत में मनुष्य जो कुछ दुःख पाता है उनमें अधिकांश ही कामिनी-कांचन की आसक्ति से आते हैं, इन दोनों से जितनी दूर हटकर रहा जाय उतना ही मंगल।
भगवान श्रीश्रीरामकृष्णदेव ने सभी को विशेष कर कहा है, कामिनी-कांचन से दूर-दूर-बहुत दूर रहो।
कामिनी से काम हटा देने से ही ये माँ हो पड़ती हैं। विष अमृत हो जाता है। और माँ, माँ ही है, कामिनी नहीं।
माँ शब्द के अंत में 'गी' जोड़कर सोचने से ही सर्वनाश। सावधान ! माँ को मागी सोच न मरो।
प्रत्येक की माँ ही है जगज्जननी ! प्रत्येक नारी ही है अपनी माँ का विभिन्न रूप, इस प्रकार सोचना चाहिए। मातृभाव हृदय में प्रतिष्ठित हुए बिना स्त्रियों को स्पर्श नहीं करना चाहिए--जितनी दूर रहा जाये उतना ही अच्छा; यहाँ तक की मुखदर्शन तक नहीं करना और भी अच्छा है।
मेरे काम-क्रोधादि नहीं गये, नहीं गये-- कहकर चिल्लाने से वे कभी नहीं जाते। ऐसा कर्म, ऐसी चिंता का अभ्यास कर लेना चाहिए जिसमें काम-क्रोधादि की गंध नहीं रहे- मन जिससे उन सबको भूल जाये।
मन में काम-क्रोधादि का भाव नहीं आने से वे कैसे प्रकाश पायेंगे ? उपाय है-- उच्चतर उदार भाव में निमज्जित रहना।
सृष्टितत्व, गणितविद्या, रसायनशास्त्र इत्यादि की आलोचना से काम-रिपु का दमन होता है।
कामिनी-कांचन सम्बन्धी जिस किसी प्रकार की आलोचना ही उनमें आसक्ति ला दे सकती है। उन सभी आलोचनाओं से जितनी दूर रहा जाये उतना ही अच्छा।
Tuesday, September 16, 2008
कृतकार्यता में क्रमागति
तुम जानो या नहीं जानो,
समर्थ हो या असमर्थ--
तुम्हारी चेष्टा की क्रमागति अटूट,
अव्याहत रहे, --
सिद्धि का पथ खोज लो--
कृतार्थ होगे
कृतकार्यता आयेगी ;
और तुम्हारी प्रतिष्ठा
तुम्हारे आदर्श को
प्रतिष्ठित करेगी ही--
निश्चय जानो ! २
समर्थ हो या असमर्थ--
तुम्हारी चेष्टा की क्रमागति अटूट,
अव्याहत रहे, --
सिद्धि का पथ खोज लो--
कृतार्थ होगे
कृतकार्यता आयेगी ;
और तुम्हारी प्रतिष्ठा
तुम्हारे आदर्श को
प्रतिष्ठित करेगी ही--
निश्चय जानो ! २
चलार साथी
तुम जगत में प्लावन की तरह बढ़ चलो--
सेवा, उद्यम, जीवन और वृद्धि को लेकर
व्यष्टि और समष्टि में
अपने आदर्श की प्रतिष्ठा करके --
जय, यश और गौरव सहित ; --
और, नारी यदि चाहे तुम्हें
तो अपने मंगलशंखनिनाद से
सारे हृदय को मुखरित कर
तुम्हारे पीछे दौड़ पड़े, --
किंतु सावधान !--
पर इसकी चाह तुम्हें नहीं रहे ! १
सेवा, उद्यम, जीवन और वृद्धि को लेकर
व्यष्टि और समष्टि में
अपने आदर्श की प्रतिष्ठा करके --
जय, यश और गौरव सहित ; --
और, नारी यदि चाहे तुम्हें
तो अपने मंगलशंखनिनाद से
सारे हृदय को मुखरित कर
तुम्हारे पीछे दौड़ पड़े, --
किंतु सावधान !--
पर इसकी चाह तुम्हें नहीं रहे ! १
सत्यानुसरण 3
अनुताप करो; किंतु स्मरण रखो जैसे पुनः अनुतप्त न होना पड़े !
जभी अपने कुकर्म के लिए तुम अनुतप्त होगे, तभी परमपिता तुम्हें क्षमा करेंगे और क्षमा होने पर ही समझोगे, तुम्हारे हृदय में पवित्र सांत्वना आ रही है और तभी तुम विनीत, शांत और आनंदित होगे ।
जो अनुतप्त होकर भी पुनः उसी प्रकार के दुष्कर्म में रत होता है, समझाना कि वह शीघ्र ही अत्यन्त दुर्गति में पतित होगा ।
सिर्फ़ मौखिक अनुताप तो अनुताप है ही नहीं, बल्कि वह अन्तर में अनुताप आने का और भी बाधक है। प्रकृत अनुताप आने पर उसके सभी लक्षण ही थोड़ा-बहुत प्रकाश पाते हैं।
स्वमत-प्रकाश
जो नारी
नत होकर,
सम्मान सहित
अपना मत प्रकाश करती है--
एवं
उस विषय में
किसी को भी
हीन नहीं बनाती,
वह --
सहज ही
आदरणीया एवं पूजनीया होती है । 15
नत होकर,
सम्मान सहित
अपना मत प्रकाश करती है--
एवं
उस विषय में
किसी को भी
हीन नहीं बनाती,
वह --
सहज ही
आदरणीया एवं पूजनीया होती है । 15
कतिपय महत्-गुण
आदर्श में अनुप्राणता,
सेवा में दक्षता,
कार्य में निपुणता,
बातों में मधुरता और सहानुभूति,
व्यवहार में संवर्द्धना --
ये सभी महद् गुण हैं । 14
सेवा में दक्षता,
कार्य में निपुणता,
बातों में मधुरता और सहानुभूति,
व्यवहार में संवर्द्धना --
ये सभी महद् गुण हैं । 14
संतोष में सुख
अपने प्रयोजन को न बढ़ाकर
मान-यश की आकांक्षा किये वगैर,
सेवा-तत्पर रहकर
सर्वदा संतुष्ट रहने के भाव को
चरित्रगत कर लो ; --
सुख तुम्हें
किसी तरह नहीं छोड़ेगा । 13
मान-यश की आकांक्षा किये वगैर,
सेवा-तत्पर रहकर
सर्वदा संतुष्ट रहने के भाव को
चरित्रगत कर लो ; --
सुख तुम्हें
किसी तरह नहीं छोड़ेगा । 13
परिजन में व्याप्ति
यदि यशस्विनी बनना चाहती हो--
अपने निजस्व और वैशिष्ट्य में अटूट रहकर
पारिपार्श्विक के जीवन और वृद्धि को
अपनी सेवा और साहचर्य से
उन्नति की दिशा में
मुक्त कर दो
तुम प्रत्येक की पूजनीया और नित्य प्रयोजनीया होकर
परिजन में व्याप्त होओ --
और ये सभी तुम्हारे
स्वाभाविक
या
चरित्रगत हों । 12
अपने निजस्व और वैशिष्ट्य में अटूट रहकर
पारिपार्श्विक के जीवन और वृद्धि को
अपनी सेवा और साहचर्य से
उन्नति की दिशा में
मुक्त कर दो
तुम प्रत्येक की पूजनीया और नित्य प्रयोजनीया होकर
परिजन में व्याप्त होओ --
और ये सभी तुम्हारे
स्वाभाविक
या
चरित्रगत हों । 12
चाह की विलासिता
जभी देखो-
तुम्हारे
वाक्, व्यवहार, चलन, चरित्र और लगे रहना
तुम्हारी चाह को
जिस प्रकार परिपूरित कर सकते हैं--
उसे सहज रूप से अनुसरण नहीं कर रहे हैं; --
निश्चय जानो --
तुम्हारी चाह खांटी नहीं है--
चाह की केवल विलासिता है । 11
तुम्हारे
वाक्, व्यवहार, चलन, चरित्र और लगे रहना
तुम्हारी चाह को
जिस प्रकार परिपूरित कर सकते हैं--
उसे सहज रूप से अनुसरण नहीं कर रहे हैं; --
निश्चय जानो --
तुम्हारी चाह खांटी नहीं है--
चाह की केवल विलासिता है । 11
Sunday, September 14, 2008
सत्यानुसरण 2
हट जाना दुर्बलता नहीं है बल्कि चेष्टा न करना ही है दुर्बलता । कुछ करने के लिए प्राणपण से चेष्टा करने पर भी यदि तुम विफलमनोरथ होते हो तो क्षति नहीं ! तुम छोड़ो नहीं, वह अम्लान चेष्टा ही तुम्हें मुक्ति की ओर ले जायेगी ।
दुर्बल मन चिरकाल ही संदिग्ध रहता है-वह कभी भी निर्भर नहीं कर सकता । विश्वास खो बैठता है-इसलिए प्रायः रुग्न, कुटिल, इन्द्रियपरवश होता है । उसके लिए सारा जीवन ज्वालामय है । अंत में अशांति में सुख-दुःख डूब जाता है, - क्या सुख है, क्या दुःख, नहीं कह सकता; पूछे जाने पर कहता है, ‘अच्छा हूँ’, पर रहती है अशांति; अवसाद से जीवन क्षय होता रहता है ।
दुर्बल हृदय में प्रेम-भक्ति का स्थान नहीं। दूसरे की दुर्दशा देख, दूसरे की व्यथा देख, दूसरे की मृत्यु देख अपनी दुर्दशा, व्यथा या मृत्यु की आशंका कर भग्न हो पड़ना, निराश होना या रो कर आकुल होना- ये सभी दुर्बलताएं हैं । जो शक्तिमान हैं, वे चाहे जो भी करें, उनकी नजर रहती है निराकरण की ओर, - जिससे उन सभी अवस्थाओं में कोई विध्वस्त न हो, प्रेम के साथ उनके ही उपाय की चिंता करना -बुद्धदेव को जैसा हुआ था। वही है सबल हृदय का दृष्टान्त ।
तुम मत कहो कि तुम भीरु हो, मत कहो कि तुम कापुरुष हो, मत कहो कि तुम दुराशय हो ! पिता की और देखो, आवेग सहित बोलो- ‘हे पिता, मैं तुम्हारी संतान हूँ, मुझमें अब जड़ता नहीं, दुर्बलता नहीं, मैं अब कापुरुष नहीं, तुम्हें भूलकर मैं अब नरक की ओर नहीं दौडूंगा और तुम्हारी ज्योति की और पीठ कर ‘अन्धकार-अन्धकार’ कह चीत्कार नहीं करूँगा।’
दुर्बल मन चिरकाल ही संदिग्ध रहता है-वह कभी भी निर्भर नहीं कर सकता । विश्वास खो बैठता है-इसलिए प्रायः रुग्न, कुटिल, इन्द्रियपरवश होता है । उसके लिए सारा जीवन ज्वालामय है । अंत में अशांति में सुख-दुःख डूब जाता है, - क्या सुख है, क्या दुःख, नहीं कह सकता; पूछे जाने पर कहता है, ‘अच्छा हूँ’, पर रहती है अशांति; अवसाद से जीवन क्षय होता रहता है ।
दुर्बल हृदय में प्रेम-भक्ति का स्थान नहीं। दूसरे की दुर्दशा देख, दूसरे की व्यथा देख, दूसरे की मृत्यु देख अपनी दुर्दशा, व्यथा या मृत्यु की आशंका कर भग्न हो पड़ना, निराश होना या रो कर आकुल होना- ये सभी दुर्बलताएं हैं । जो शक्तिमान हैं, वे चाहे जो भी करें, उनकी नजर रहती है निराकरण की ओर, - जिससे उन सभी अवस्थाओं में कोई विध्वस्त न हो, प्रेम के साथ उनके ही उपाय की चिंता करना -बुद्धदेव को जैसा हुआ था। वही है सबल हृदय का दृष्टान्त ।
तुम मत कहो कि तुम भीरु हो, मत कहो कि तुम कापुरुष हो, मत कहो कि तुम दुराशय हो ! पिता की और देखो, आवेग सहित बोलो- ‘हे पिता, मैं तुम्हारी संतान हूँ, मुझमें अब जड़ता नहीं, दुर्बलता नहीं, मैं अब कापुरुष नहीं, तुम्हें भूलकर मैं अब नरक की ओर नहीं दौडूंगा और तुम्हारी ज्योति की और पीठ कर ‘अन्धकार-अन्धकार’ कह चीत्कार नहीं करूँगा।’
भाव, भाषा और कर्म
भाव
भाषा को मुखर कर देता है —
पुनः भाव ही कर्म को नियंत्रित करता है,
और, भावना से ही भाव उदित होता है;
अतएव
अपनी भावना को
जितने सुंदर, सुश्रृंखल, सहज, अविरोध
एवं उन्नत ढंग की बनाओगी —
तुम्हारी भाषा, व्यवहार, और कर्मकुशलता भी
उतनी
सुंदर अविरोध और उन्नत ढंग की होगी ! 10
भाषा को मुखर कर देता है —
पुनः भाव ही कर्म को नियंत्रित करता है,
और, भावना से ही भाव उदित होता है;
अतएव
अपनी भावना को
जितने सुंदर, सुश्रृंखल, सहज, अविरोध
एवं उन्नत ढंग की बनाओगी —
तुम्हारी भाषा, व्यवहार, और कर्मकुशलता भी
उतनी
सुंदर अविरोध और उन्नत ढंग की होगी ! 10
दान और प्राप्ति
तुम्हारे भाव, भाषा और कर्मकुशलता जिस प्रकार होगी
तुम्हारे संसर्ग में जो ही आयेंगे
उसी प्रकार वे उद्दीप्त होंगे,
और, तुम पाओगी भी वही —
उसी प्रकार ;
तुम नारी हो,
प्रकृति ने ही तुम्हें
वैसी गुणमयी बनाकर
प्रसव किया है —
समझकर चलो ! 9
तुम्हारे संसर्ग में जो ही आयेंगे
उसी प्रकार वे उद्दीप्त होंगे,
और, तुम पाओगी भी वही —
उसी प्रकार ;
तुम नारी हो,
प्रकृति ने ही तुम्हें
वैसी गुणमयी बनाकर
प्रसव किया है —
समझकर चलो ! 9
नारीत्व का अपलाप
स्मरण रखो —
तुम्हारा संसर्ग यदि
सभी विषयों में
यथायथ भाव से
उन्नति या वृद्धि की दिशा में
परिचालित नहीं करे —
तो तुम्हारा नारीत्व क्या
मसीलिप्त नही हुआ? 8
तुम्हारा संसर्ग यदि
सभी विषयों में
यथायथ भाव से
उन्नति या वृद्धि की दिशा में
परिचालित नहीं करे —
तो तुम्हारा नारीत्व क्या
मसीलिप्त नही हुआ? 8
धर्मकार्य
धर्मकार्य का अर्थ है
वही करना —
जिससे
तुम्हारा और तुम्हारे पारिपार्श्विक का
जीवन, यश और वृद्धि
क्रमवर्द्धन से वर्द्धित हो ;-
सोच, समझ, देख, सुनकर —
वही बोलो, --
और आचरण में
उसका ही अनुष्ठान करो,--
देखोगी —
भय और अशुभ से कितना त्राण पाती हो। 7
वही करना —
जिससे
तुम्हारा और तुम्हारे पारिपार्श्विक का
जीवन, यश और वृद्धि
क्रमवर्द्धन से वर्द्धित हो ;-
सोच, समझ, देख, सुनकर —
वही बोलो, --
और आचरण में
उसका ही अनुष्ठान करो,--
देखोगी —
भय और अशुभ से कितना त्राण पाती हो। 7
कुमारीत्व
कुमारी कन्याओं का —
पिता के प्रति अनुरक्ति रहना,
उनकी सेवा और साहचर्य करना —
उनके साथ
वार्तालाप करना —
उन्नति का प्रथम और पुष्ट सोपान है। 6
पिता के प्रति अनुरक्ति रहना,
उनकी सेवा और साहचर्य करना —
उनके साथ
वार्तालाप करना —
उन्नति का प्रथम और पुष्ट सोपान है। 6
सत्यानुसरण 1
सर्वप्रथम हमें दुर्बलता के विरुद्ध युद्ध करना होगा। साहसी बनना होगा, वीर बनना होगा। पाप की ज्वलंत प्रतिमूर्ति है वह दुर्बलता। भगाओ, जितना शीघ्र सम्भव हो, रक्तशोषणकारी अवसाद-उत्पादक Vampire को। स्मरण करो तुम साहसी हो, स्मरण करो तुम शक्ति के तनय हो, स्मरण करो तुम परमपिता की संतान हो। पहले साहसी बनो, अकपट बनो, तभी समझा जाएगा, धर्मराज्य में प्रवेश करने का तुम्हारा अधिकार हुआ है।
तनिक-सी दुर्बलता रहने पर भी तुम ठीक-ठीक अकपट नहीं हो सकोगे और जब तक तुम्हारे मन-मुख एक नहीं होते तब तक तुम्हारे अन्दर की मलिनता दूर नहीं होगी।
मन-मुख एक होने पर भीतर मलिनता नहीं जम सकती- गुप्त मैल भाषा के जरिये निकल पड़ते हैं। पाप उसके अन्दर जाकर घर नहीं बना सकता !
Saturday, September 13, 2008
मेरी बातें
"मेरी बातें यदि तुम्हारे लिए--
कथनी व चिंता का सिर्फ़ खुराक भर रहे--
करनी एवं आचरण में
उन सबों को यदि--
वास्तव में प्रस्फुटित न कर सके--
तो--
तुम्हारी प्राप्ति
तमसाच्छन्न रह जायेगी--
वह किंतु अतिनिश्चय है।--
तुम्हारा "मैं"
श्री श्री ठाकुर
कथनी व चिंता का सिर्फ़ खुराक भर रहे--
करनी एवं आचरण में
उन सबों को यदि--
वास्तव में प्रस्फुटित न कर सके--
तो--
तुम्हारी प्राप्ति
तमसाच्छन्न रह जायेगी--
वह किंतु अतिनिश्चय है।--
तुम्हारा "मैं"
श्री श्री ठाकुर
Friday, September 12, 2008
व्यवसाय का व्यवहार
मनुष्य के साथ खूब प्रीति-मधुर व्यवहार करो। चेष्टा करो, किस तरह से मनुष्य को कितने कम पैसे में अच्छी चीज दे सकते हो। और, मूलधन में कभी भी हाथ मत लगाओ। मूलधन लक्ष्मी का आसन होता है। उसमें योग करोगे, किंतु उसमें से एक पैसा भी खर्च नहीं करोगे।
नारी का वैशिष्ट्य
नारियों के वैशिष्ट्य में है--
निष्ठा, धर्म, शुश्रूषा, सेवा, सहायता,
संरक्षण, प्रेरणा और प्रजनन,
तुम अपने इन वैशिष्ठ्यों में
किसी एक का भी
त्याग न करो ;
इसे खोने पर
तुमलोगों का
और बचा ही क्या ? 5
निष्ठा, धर्म, शुश्रूषा, सेवा, सहायता,
संरक्षण, प्रेरणा और प्रजनन,
तुम अपने इन वैशिष्ठ्यों में
किसी एक का भी
त्याग न करो ;
इसे खोने पर
तुमलोगों का
और बचा ही क्या ? 5
सुख और भोग
सुख का अर्थ वही है
जो being को (सत्ता या जीवन को)
सुस्थ, सजीव और उन्नत कर
पारिपार्श्विक को उस प्रकार बना दे, --
और प्रकृत भोग
तभी वहाँ उसे
अभिनंदित करता है। 4
जो being को (सत्ता या जीवन को)
सुस्थ, सजीव और उन्नत कर
पारिपार्श्विक को उस प्रकार बना दे, --
और प्रकृत भोग
तभी वहाँ उसे
अभिनंदित करता है। 4
क्षिप्रता और दक्षता
क्षिप्रता सहित दक्षता को साध लो,
और नजर रखो भी-
मनुष्य के प्रयोजनानुसार
हावभाव पर ;
और हावभाव को देखकर ही
जिससे
प्रयोजन को अनुधावन कर सको-
अपने बोध को इसी प्रकार तीक्ष्ण बनाने की
चेष्टा करो ;
इसी प्रकार ही--
क्षिप्रता और दक्षता सहित--
मनुष्य के प्रयोजन को
अनुधावन कर
सेवा-तत्पर बनो,--
देखोगी--
सेवा का जयगान
तुम्हें परिप्लुत कर देगा। 3
और नजर रखो भी-
मनुष्य के प्रयोजनानुसार
हावभाव पर ;
और हावभाव को देखकर ही
जिससे
प्रयोजन को अनुधावन कर सको-
अपने बोध को इसी प्रकार तीक्ष्ण बनाने की
चेष्टा करो ;
इसी प्रकार ही--
क्षिप्रता और दक्षता सहित--
मनुष्य के प्रयोजन को
अनुधावन कर
सेवा-तत्पर बनो,--
देखोगी--
सेवा का जयगान
तुम्हें परिप्लुत कर देगा। 3
सेवा और सेवा का अपलाप
"सेवा" का अर्थ वही है
जो मनुष्य को
सुस्थ, स्वस्थ, उन्नत और आनंदित कर दे;
जहाँ ऐसा न हो
परन्तु शुश्रूषा है-
वह सेवा अपलाप को आवाहन करती है। 2
जो मनुष्य को
सुस्थ, स्वस्थ, उन्नत और आनंदित कर दे;
जहाँ ऐसा न हो
परन्तु शुश्रूषा है-
वह सेवा अपलाप को आवाहन करती है। 2
कन्या मेरी !
तुम्हारी सेवा, तुम्हारा चलन
तुम्हारी चिंता, तुम्हारी कथनी,
पुरूष-जनसाधारण में
ऐसा एक भाव पैदा कर दे-
जिससे वे नतमस्तक,
नतजानु हो,
ससम्भ्रम,
भक्तिगदगद कंठ से --
"माँ मेरी, जननी मेरी!" कहते हुए
मुग्ध हों, बुद्ध हों, तृप्त हों,
कृतार्थ हों, --
तभी तो तुम कन्या हो,
--तभी तो तुम हो सती !
तुम्हारी चिंता, तुम्हारी कथनी,
पुरूष-जनसाधारण में
ऐसा एक भाव पैदा कर दे-
जिससे वे नतमस्तक,
नतजानु हो,
ससम्भ्रम,
भक्तिगदगद कंठ से --
"माँ मेरी, जननी मेरी!" कहते हुए
मुग्ध हों, बुद्ध हों, तृप्त हों,
कृतार्थ हों, --
तभी तो तुम कन्या हो,
--तभी तो तुम हो सती !
माँ की तरह
तुम मनुष्य की
माँ जैसा अपना बनने की
चेष्टा करो--
कथनी, सेवा और भरोसा से
किंतु घुलमिलकर नहीं
देखोगी --
कितने तुम्हारे अपने बनते जा रहे हैं। 1
माँ जैसा अपना बनने की
चेष्टा करो--
कथनी, सेवा और भरोसा से
किंतु घुलमिलकर नहीं
देखोगी --
कितने तुम्हारे अपने बनते जा रहे हैं। 1
Thursday, September 11, 2008
सत्यानुसरण
"भारत की अवनति तभी से आरम्भ हुई जब से भारतवासियों के लिए अमूर्त भगवान असीम हो उठे -- ऋषियों को छोड़ कर ऋषिवाद की उपासना आरम्भ हुई। भारत ! यदि भविष्यत्-कल्याण को आह्वान करना चाहते हो, तो सम्प्रदायगत विरोध को भूल कर जगत के पूर्व-पूर्व गुरुओं के प्रति श्रद्धासंपन्न होओ -- और अपने मूर्त एवं जीवंत गुरु वा भगवान् में आसक्त होओ, --और उन्हें ही स्वीकार करो--जो उनसे प्रेम करते हैं। कारण, पूर्ववर्ती को अधिकार करके ही परवर्ती का आविर्भाव होता है !"
--: श्री श्री ठाकुर अनुकूलचंद्र
"अर्थ, मान, यश इत्यादि पाने की आशा में मुझे ठाकुर बनाकर भक्त मत बनो, सावधान होओ - ठगे जाओगे; तुम्हारा ठाकुरत्व न जागने पर कोई तुम्हारा केन्द्र नहीं, ठाकुर भी नहीं-- धोखा देकर धोखे में पड़ोगे"
--: श्री श्री ठाकुर
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