हट जाना दुर्बलता नहीं है बल्कि चेष्टा न करना ही है दुर्बलता । कुछ करने के लिए प्राणपण से चेष्टा करने पर भी यदि तुम विफलमनोरथ होते हो तो क्षति नहीं ! तुम छोड़ो नहीं, वह अम्लान चेष्टा ही तुम्हें मुक्ति की ओर ले जायेगी ।
दुर्बल मन चिरकाल ही संदिग्ध रहता है-वह कभी भी निर्भर नहीं कर सकता । विश्वास खो बैठता है-इसलिए प्रायः रुग्न, कुटिल, इन्द्रियपरवश होता है । उसके लिए सारा जीवन ज्वालामय है । अंत में अशांति में सुख-दुःख डूब जाता है, - क्या सुख है, क्या दुःख, नहीं कह सकता; पूछे जाने पर कहता है, ‘अच्छा हूँ’, पर रहती है अशांति; अवसाद से जीवन क्षय होता रहता है ।
दुर्बल हृदय में प्रेम-भक्ति का स्थान नहीं। दूसरे की दुर्दशा देख, दूसरे की व्यथा देख, दूसरे की मृत्यु देख अपनी दुर्दशा, व्यथा या मृत्यु की आशंका कर भग्न हो पड़ना, निराश होना या रो कर आकुल होना- ये सभी दुर्बलताएं हैं । जो शक्तिमान हैं, वे चाहे जो भी करें, उनकी नजर रहती है निराकरण की ओर, - जिससे उन सभी अवस्थाओं में कोई विध्वस्त न हो, प्रेम के साथ उनके ही उपाय की चिंता करना -बुद्धदेव को जैसा हुआ था। वही है सबल हृदय का दृष्टान्त ।
तुम मत कहो कि तुम भीरु हो, मत कहो कि तुम कापुरुष हो, मत कहो कि तुम दुराशय हो ! पिता की और देखो, आवेग सहित बोलो- ‘हे पिता, मैं तुम्हारी संतान हूँ, मुझमें अब जड़ता नहीं, दुर्बलता नहीं, मैं अब कापुरुष नहीं, तुम्हें भूलकर मैं अब नरक की ओर नहीं दौडूंगा और तुम्हारी ज्योति की और पीठ कर ‘अन्धकार-अन्धकार’ कह चीत्कार नहीं करूँगा।’
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